विषय और वस्तु का पृथक्करण ही द्वैत है, और यह एक भ्रम है।
मन में छिपा द्वैत आपके और संसार के बीच है।
आपका यह विश्वास कि आप यह शरीर हैं, इसे जन्म देता है।
सच तो यह है कि शरीर हमेशा बदलता रहता है, और फिर भी हमारा उसमें विश्वास कभी नहीं बदलता।
हमारी अडिग देह चेतना के कारण आध्यात्मिक छलांग नहीं लगती।
इस भ्रम से पार पाना आध्यात्मिकता में सबसे महत्वपूर्ण कदम है।
तभी कोई अविभाजित चेतना (ईश्वरत्व) में विलीन हो सकता है, और द्वैत अद्वैत बन जाता है।
यह केवल ध्यान की गहन, गहन शांति में ही होता है।
“मैं यह शरीर हूँ” यह भी एक विचार है।
जब आप विचारहीन हो जाते हैं, तब आप क्या होते हैं?
आप अपरिभाषित विचारहीन शून्य अवस्था हैं, और फिर भी आप मौजूद हैं, जैसे कि हर चीज़ और हर कोई।
अस्तित्वगत स्तर पर, हम ब्रह्मांड से जुड़ते हैं।